लोगों की राय

यात्रा वृत्तांत >> आखिरी चट्टान तक

आखिरी चट्टान तक

मोहन राकेश

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7214
आईएसबीएन :9789355189332

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

बहुआयामी रचनाकार मोहन राकेश का यात्रावृत्तान्त

पीछे की डोरियाँ


पच्छिमी घाट की छोटी-छोटी पहाड़ियाँ तेज़ी से निकलती जा रही थीं। जगह-जगह पहाड़ियों को मिलाते पुल आ जाते जिन्हें देखकर मन में एक पुलक का अनुभव होता। पूना एक्सप्रेस की खिड़की एक चौखटे की तरह थी जिसके पीछे का चित्र निरन्तर गतिशील था। गहराइ एक तरफ़ से ऊपर को उठने लगती और पहाड़ी का रूप ले लेती। पहाड़ी एक तरफ़ से बैठने लगती और घाटी में बदल जाती। मिट्टी पानी को स्थान देकर हट जाती और पानी उभरी हुई चट्टानों के लिए स्थान छोड़ देता।

पहले सोचा था कि बम्बई से गोआ तक की यात्रा स्टीमर से करूँगा। पर स्टीमर बम्बई से पहली तारीख़ को जाने को था और मैं वहाँ और एक दिन भी नहीं रुकना चाहता था। इसलिए सुबह ही पूना एक्सप्रेस पकड़ ली थी और उस समय खिड़की के पास बैठा दूर तक घाट के प्रदेश को देख रहा था। वह हरियाली नि:सन्देह बहुत सुन्दर थी-आँखें उसमें बहुत रमती थीं। समतल पर हरियाली बहुत सपाट हो जाती है। ऊँचे पहाड़ों पर ऊँचाई उस पर छायी रहती है। पर यहाँ ज़मीन की हल्की-हल्की करवटों में हरियाली अपनी ही एक मस्ती में बिखरी थी...।

मेरे पास बैठा एक सिन्धी एक गुजराती से पूछ रहा था कि पूना में देखने की ख़ास-ख़ास जगहें कौन-सी हैं।

"ख़ास जगह कोई नहीं है; सब वैसी ही है जैसी बम्बई में है," गुजराती झुँझलाये स्वर में बोला।

"बड़ी देखो न," सिन्धी उसे समझाने लगा। "हर शहर में अपनी कोई रौनक की जगाँ होती है, कोई बड़ा मन्दिर होता है, कारख़ाना होता है। जैसे हमारे उधर कराची में...।"

"हाँ साहब, होता है," गुजराती इतने में ही उकता गया। "सड़की होती है, डाकख़ाना होता है, चिड़ियाघर होता है। यह सभी कुछ पूना में है।"

"तो पूना में तो बड़ी अपनी तरह का होगा न," सिन्धी बोला। "हमारे उधर कराची में भी सड़कें थीं, डाकख़ाना था, चिड़ियाघर था, मगर वह सब इधर जैसा तो नहीं था न...!" फिर वह सबको सम्बोधित करके कहने लगा, "क्यों जी, जब इन्सान और इन्सान एक-सा नहीं होता, एक भाई से दूसरा भाई मेल नहीं खाता, एक हाथ की पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं, तो फिर और चीज़ें एक-सी कैसे हो सकती हैं? दुनिया में कोई दो चीज़ें कभी एक-सी नहीं होतीं! हमारे उधर कराची में...।"

गुजराती उसके फ़लसफ़े से तंग आ गया था। वह उसकी बात बीच में काटता बोला, "क्यों भाई साहब, कभी रेस खेलने जाते हो?"

"क्यों नहीं जाता बड़ी?" सिन्धी बोला। "बहुत बार जाता हूँ।"

"देखो, रेस में जो घोड़ा बम्बई में दौड़ता है, वही पूना में दौड़ता है। जो आदमी बम्बई में पैसा गँवाता है, वही पूना में भी गँवाता है।"

सिन्धी पल-भर सोचता रहा। फिर इस नतीजे पर पहुँचकर कि उसे उलझाने की कोशिश की जा रही है, बोला, "हमने तो बड़ी पूना की रेस में कभी पैसा नहीं गँवाया। जो दो-तीन सौ गँवाया है, सब बम्बई में ही गँवाया है। या फिर हमारे उधर कराची में...।" और वह कराची की रेसों के लम्बे-चौड़े विवरण देने लगा। गुजराती ने हारकर सिर खिड़की से बाहर निकाल लिया। मैं भी उधर से ध्यान हटाकर फिर बाहर की हरियाली को देखने लगा।

 

* * *

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रकाशकीय
  2. समर्पण
  3. वांडर लास्ट
  4. दिशाहीन दिशा
  5. अब्दुल जब्बार पठान
  6. नया आरम्भ
  7. रंग-ओ-बू
  8. पीछे की डोरियाँ
  9. मनुष्य की एक जाति
  10. लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता
  11. चलता जीवन
  12. वास्को से पंजिम तक
  13. सौ साल का गुलाम
  14. मूर्तियों का व्यापारी
  15. आगे की पंक्तियाँ
  16. बदलते रंगों में
  17. हुसैनी
  18. समुद्र-तट का होटल
  19. पंजाबी भाई
  20. मलबार
  21. बिखरे केन्द्र
  22. कॉफ़ी, इनसान और कुत्ते
  23. बस-यात्रा की साँझ
  24. सुरक्षित कोना
  25. भास्कर कुरुप
  26. यूँ ही भटकते हुए
  27. पानी के मोड़
  28. कोवलम्
  29. आख़िरी चट्टान

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book